Tuesday, February 10, 2009

संवेदनहीन होता मीडिया

वक्त से आगे बढ़ने के फेर में हम इतना आगे निकल जाते हैं कि ये सोचने का भी टाइम नहीं मिलता कि हम क्या कर रहे हैं, जो कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं ... हमारे पड़ोस में कोई मरता है तो मरे हम तो 'सेफ' हैं ना बस! इतना ही काफी है॥ लेकिन क्या किसी का काम ये भी हो सकता है कि वो किसी की मौत का इंतजार करे!..पर हमारा ये काम है.. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब से एम्स में भर्ती हुए हैं मीडिया चील से भी तेज नजर एम्स पर रखे हुए है.. आलम ये है कि हर छोटे मोटे चैनल्स की ओबी एम्स के बाहर इस तरह से खड़ी हैं कि मानो वाजपेयी जी की मौत का इंतजार कर रही हों ... ये इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि मौत की खबर पहले और सबसे पहले दिखाने की चाह में हम २४ घंटे ओबी और रिपोर्टर को लगाकर उनकी मौत का ही इंतजार कर रहे हैं.. इस बात के दो नजरिए हैं पहला ये कि खबर पहुँचाना मीडिया का काम है और दूसरा ये कि ऐसा करते हुए हमने अपनी संवेदनाएं खत्म कर ली हैं.. दूसरा नजरिया ज्यादा खतरनाक है क्योंकि वो एक चलन की ओर संकेत कर रहा है कि किसी की मौत एक खबर से ज्यादा कुछ भी नहीं है हमारे लिए..... इसके अलावा हद तो तब हो जाती है जब सारे मीडिया जगत में वाजपेयी का प्रोफाइल तैयार कर लिया जाता है और उनकी अच्छी बुरी यादों से जुड़े पैकेज तैयार कर लिए जाते हैं कि बस मरें और हम एक के बाद एक, खूबसूरत स्क्रीन दिखाने के लिए अपने पैकेज दागते जाएं... हमें देश की भावी राजनीति की चिन्ता तो नहीं है लेकिन फ्यूनरल का कोई शॉट न छूट जाए इसकी ज्यादा चिंता है.. ये हमारा काम है या हमारी मजबूरी!

Sunday, February 8, 2009

हिन्दुत्व का चोला ओड़े मीडिया और टीवी जगत

धर्म हमारी जरूरत है या सत्ता भोग का एक रास्ता...कह नहीं सकते सच तो ये है कि अलग अलग लोगों के लिए ये अलग अलग मायने रखता है या उनके अलग अलग साध्यों को पूरा करता है..... अपने आपको धर्म,जाति या सत्ता से अलग करने वाला मीडिया कैसे धर्म और जाति के चक्कर में फंसता चला गया जानना रोचक होगा.. सच तो ये है पत्रकारिता के मूल्यों से दूर जाता मीडिया जगत पत्रकारिता से इतना दूर चला गया है की सम्भलना भी मुश्किल होगा... नेताओं की किसी विशेष धर्म के प्रति बढ़ती आस्था और दिए गए कमेंट्स को मीडिया जिस चाव के साथ दिखाता है और दिखाकर दिनभर की टीआरपी बटोरता है वो खुद हिन्दुत्व का चोला ओड़े हुए है इस बात के प्रमाण भी हैं... किसी भी चैनल पर नजर डालें तो आपको धर्म-कर्म के कई प्रोग्राम दिखाई देंगे.. लेकिन इन सभी प्रोग्राम और सभी न्यूज चैनल्स में एक ही बात कॉमन है वो है हिन्दू आस्था.. शुरू करते हैं सुबह के ०६-०६.३०बजे से... न्यूज पर पहला प्रोग्राम मंदिर के दर्शन... इसके बाद ये सिलसिला जो चलता है रुकने का नाम भी नहीं लेता.. मंदिर दर्शन के बाद सभी चैनलों पर जगह लेते हैं प्रवचन करते बाबा.. कभी स्वर्ग की सीड़ियां दिखाई जाती हैं तो कभी पाताल का रास्ता.. कभी धर्म के नाम पर डराते हैं तो कभी डरे हुए को धर्म से मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं.... शबरी के बेर, शनिदेव, आपका दिन, राशिफल, कुंडली में राहु केतु और फिर उनसे बचने के उपाय न्यूज चैनल की जान हैं और टीआरपी का मुख्य जरिया... इसी के साथ एन्टरटेन्मेंट चैनल पर भी माता की चौकी, शिवजी, कृष्ण, राम ने अपनी जगह बखूबी बना रखी है.. ये एक खास वर्ग को एन्टरटेन करना चाहते हैं.. खासकर ऐसे न्यूज चैनलस को सैक्यूलर कहना गलत ही होगा

Monday, February 2, 2009

एक और जूता?

अजब गजब खेल है ये जूतों का... गुस्सा निकालने का नया तरीका... जैदी जी का जूता फेल हुआ तो क्या हुआ एक और शौयॆवीर ने ये साहस कर दिखाया... अबकी बार निशाने पर थे चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबो.. हालांकि निशाना इस बार भी चूका लेकिन ये जूता भी कमाल कर गया... और तो और भारतीय मीडिया ने तो बार बार ये खबरें दिखाकर सोने पर सुहागा कहावत को चरिताथॆ किया है... कैसे? वो ऐसे कि इसका असर आने वाले लोकसभा चुनाव पर कितना गहरा पड़ सकता है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.... नए जमाने के इन क्रांतिकारियों को सरकार पर गुस्सा दिखाने के लिए ना ही तो कोई बंदूक चाहिए न गोला बारूद, चाहिए तो 'बस एक जूता'.... अब सोचिए कि हमारे नेता तो बिना सोचे समझे कुछ भी कहने के लिए 'फेमस' हैं, अपनी सभा में, मीडिया को बाइट देते वक्त बोलने से पहले सोचना जरूरी तो समझते नहीं हैं.. अगर हमारी जागरुक जनता ने जूतों की बारिश करनी शुरू कर दी तो कुकुरमुत्ते से उगने वाले नेताओं पर जगह जगह जूते बरसते रहेंगे... और हां, भारत में भी निशाना चूके इसकी कोई गारन्टी नहीं है... खैर सम्भलते गिरते नेताओं को तो हमारी यही राय है कि अपनी सभाओं में किसी चीज पर रोक लगाएं या न लगाएं, लेकिन जूते पर रोक जरूर लगा देनी चाहिए... सभी जगह कड़ी चैकिंग हो कि गलती से भी कोई श्रोता जूते पहन कर नेताजी का भाषण सुनने न आए!

Sunday, February 1, 2009

गलती करने की आदत पड़ गयी थी

मेरे पिछले प्रकाशित लेख में मैंने लेखनी के तौर पर कई अशुद्धियां की थीं.. जिसके लिए मैं माफी मांगना चाहती हूँ.. दरअसल मैं 'जल्दी' में थी, लेख जल्दबाजी में लिखा गया था.. अपने 'कीमती ऑफिस टाइम' में से थोड़ा सा टाइम निकालकर जो लिखा था.... दरअसल मैं मीडिया में असाइनमेंट पर काम करती हूँ जहां जल्दी से जल्दी खबर देने पर विश्वास किया जाता है... मैं खबर लिखकर जब उसकी अशुद्धियां ठीक करती हूँ तो कहा जाता है कि जल्दी भेजो ये सब ठीक करना छोड़ो... 'टाइम वेस्ट मत करो!'... इसलिए गलतियां ठीक करने में 'टाइम वेस्ट' करना भूल गयी थी... आगे से ऐसा टाइम कई बार 'वेस्ट' करूँगी लेकिन सही लिखने की कोशिश करूँगी