Saturday, December 5, 2009

एक तारीख या और कुछ

6 दिसम्बर,1992
17 साल पहले की इस तारीख ने जो कुछ देखा,उसने धर्मनिरपेक्ष भारत के भविष्य को उलझनों का शिकार बना दिया। आजादी के बाद हुए तमाम राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक बदलावों,यहां तक की इमरजेंसी ने भी देश की राजनीति को इतना गहरा नुकसान नहीं पहुंचाया था। क्योंकि इस घटना के बाद व्यवस्था का रंग ही कम्यूनल हो गया। आने वाले समय में देश की जनांकिकी की विचारधारा में बदलाव आया और मुखर साम्प्रदायिक ताकतों को शीर्ष-सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला। देश में 2002 की घटना हुई,जहां राजधर्म और धर्म का अंतर मिट गया था। जो देश की सर्वोच्च विधि-संविधान की मान्यताओं के खिलाफ था और आज भी है। देश ने देखा कि कैसे अल्पसंख्यक समुदाय को क्षति पहुंचाने का काम गैर-सरकारी गुटों ने सरकारी समर्थन से किया। उड़ीसा में पादरी और उनके मासूमों को जिंदा जलाने की घटना को देखा गया। कंधमाल की घटना यह साबित करने के लिए काफी है कि राजनीति में दिखने वाला वैचारिक मतभेद निहायत ही कमजोर है। आज बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक होने की दुराग्रही परिभाषाएं स्वीकार्य और सार्वजनिक हो चुकी हैं। कल तक जो बातें घरों के दरमियान जगह नहीं पाती थीं,आज मंचों से बोली जा रही हैं। हालांकि भारत में साम्प्रदायिकता की पहले भी कोई कमी नहीं थी। लेकिन आजादी के बाद की राजनीतिक ने इसे कम करने के बजाय इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया,जिसने काल के कपाल पर बाबरी मस्जिद विध्वंस का निशान छोड़ा है। आज अल्पसंख्यक होने का मतलब ही संदेह के घेर में होना है। इस लिहाज से समाचारों के चुनाव व उनकी लेखन शैली से लेकर फिल्मों,टी.वी.सीरियलों पर गौर किया जा सकता है। अपराधी होना या न होना धर्म के नजरिये से तय किया जा रहा है। खास किस्म की वेश-भूषा,यहां तक की व्यंजनों को साम्प्रदायिक टिप्पणियों से नवाजा जा रहा है। लोग इतने दुराग्रही कैसे हो गये ? सहकर्मी का अनुभव है कि एक फिल्म देखने के दौरान सीन बदलने के साथ-साथ लोग कमेंट करते जा रहे थे। जैसे...आ गये भाई लोग...फलां बिरयानी। बात आयी गई नहीं है। क्या गंगा-जमुनी तहजीब यही थी या फिर उसके कुछ और मायने थे। मल्टी प्लेक्स में बैठा उदारमना छवि रखने वाला वर्ग,जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता है,यह कैसा बर्ताव कर रहा है। गौर करें 18 से 35 वर्ष की आयुवर्ग का व्यक्ति जो मल्टीफ्लेक्स का सफर कर रहा है,अपनी उम्र में सुने गये और देखे गये घटनाक्रमों के जरिये ही भाषा और व्वयहार तय कर रहा है। इस पर इतिहास की व्याख्याओं और बाबरी विध्वंस जैसी कई घटनाओं का असर है। राजनीतिक फलक के सभी साम्प्रदायिक अनुभवों को उसने बाल,किशोर और युवा मष्तिष्क से देखा है। यानी जो आज वह बोल रहा है,तुरंत की गढ़ी हुई परिभाषा नहीं है। बल्कि विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस जैसी संस्थाओं की कई वर्षों की मेहनत का परिणाम है,जिसे योगी आदित्यनाथ जैसे लोग विस्तार दे रहे हैं। किताबों में अकबर था और अशोक थे,का अंतर महसूस होता है। घर में आने जाने वालों के लिए बर्तन उसकी जाति और धर्म के लिहाज से तय होना अभी भारत के गांवों से मिटा नहीं है। परिवार के शाकाहारी होने का तर्क दिया जाता है,लेकिन बात वहां आकर फंस जाती,जब रिश्तेदार सर्वाहारी होता है। कहने का मतलब साफ है कि जहां पहले से ही इतना संकट मौजूद हो,वहां पर राजनीति के आदर्शों के डगमगाने का परिणाम सकारात्मक नहीं हो सकता है। ऐसे माहौल में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना ने मर्यादाओं की हदों को छिन्न-भिन्न कर दिया। जो कल एक साजिश थी,एक प्रयास के बतौर चल रही थी,आज व्यवस्था की प्रतिबद्धता में बदल चुकी है,जिसे आतंकवाद को खास समुदाय से जोड़ने के मामले में देखा जा सकता है। दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच न कराने के पीछे कारणों को तलाशा जा सकता है। इशरत जहाँ फर्जी एनकाउंटर से ज्यादा सक्षम सबूत और क्या होगा ?
बात खास समुदाय को निशाने पर लेने से आगे की है। क्योंकि व्यवस्था ने गैर-बराबरी पूर्ण समाजिक ढांचे को संरक्षित करने के लिए भय और हिंसा को अपना औजार बना लिया है। भय और हिंसा के माहौल को जीवित रखने के लिए जरुरी है कि देश के सामने हर समय एक के बाद एक नया शत्रु मौजूद रहे। जैसे अमेरिका को जीने के लिए युद्ध की जरूरत होती है। इसलिए वह लगातार नए युद्ध क्षेत्रों को खोज में रहता है। इस काम के लिए भारतीय व्यवस्था ने अपनी भौगोलिक सीमा को चुना है। शत्रुओं को तय करने का काम सत्ताधारी और गैर-सत्ताधारी,दोनों शक्तियां बराबर की भागीदार हैं। क्योंकि व्यवस्था के भीतर शक्तियों के बंटवारे में पक्ष व विपक्ष दोनों सत्ता का उपभोग करते हैं। यही कारण है कि जब भारतीय जनता पार्टी बाबरी मस्जिद गिराने के लिए अयोध्या में कारसेवकों को इकट्ठा कर रही थी,तो केंद्र की सत्ता ने एहतिहाती कदम उठाना तक जरूरी नहीं समझा था।
कुल मिलाकर 17 साल पहले के राजनीतिक हठकंडों में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। भय व विभाजन के फार्मूले पर ही काम हो रहा है। डेविड कोलमैन हेडली और तसुव्बुर राणा को मुम्बई हमले का जिम्मेदार बताते हुई रिपोर्ट सामने आ रही है। देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बढ़ती महंगाई और सत्ता के दमन पर कुछ भी बोलने के बजाय सम्भावित आतंकी हमलों की भविष्यवाणी कर रहे हैं। बावजूद इसके राजधानी में कई राज्यों के किसानों ने गन्ने के मूल्य पर प्रदर्शन किया। किसानों के प्रतिरोध के सामने सरकार को झुकना पड़ा और उसे अपना फैसला वापस लिया। मौजूदा सरकार को यह महसूस हो गया कि शायद जनता के बीच डर और विभाजन का असर कम होने लगा है और असल के मुद्दे उसकी समझ में आने लगे हैं। उसने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले की जांच से जुड़ी रिपोर्ट लीक कर दी। खबर लीक होते ही सड़क से लेकर संसद तक लिब्रहान रिपोर्ट की चर्चा शुरू हो गई। यह सब कुछ लोक सभा का सत्र शुरू होने के साथ हुआ। लिब्रहान रिपोर्ट ने मौजूदा सरकार को महंगाई,भ्रष्टाचार के मामले में लिप्त मुध कोड़ा और गन्ना किसानों के मुद्दे पर खाल बचाने का मौका दे दिया है। यहीं एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि कांग्रेस व साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली पार्टियों में अंतर दिखावटी है। यह अलग बात है कि बाकी साम्प्रदायिकता को लेकर मुखर हैं और कांग्रेस इसका धीमा इस्तेमाल करती है। उदाहरण के लिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में एक क्षेत्रीय सदभावना कार्यक्रम आयोजित किया। जिसमें कई साधु-संतों को बुलाया गया था। कांग्रेस का आयोजन लगभग सभी चुनाव हार चुकी भाजपा के वोट बैंक के सामने अपना हिंदूवादी चेहरा सशक्त करने के लिए था। बाबरी विध्वंस तो एक घटना है,जिसके आगे-पीछे रोजाना नये-नये विध्वंस किये जा रहे हैं। लोक-जीवन समय बीतने के साथ विभाजित होता जा रहा है। बाबरी मस्जिद विध्वंस की व्याख्या किसी समुदाय विशेष के खिलाफ कार्रवाई के बतौर की जा सकती है,लेकिन यह उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है,जिसका मकसद भय और हिंसा के जरिए गैर-बराबरीपूर्ण सामाजित ढ़ांचे को कायम रखना है।.
ईमेल-rishi2585@gmail.com

Friday, May 22, 2009

अंकल स्क्रूच का खजाना

चुनाव आते ही सांसदों के बहिखाते तैयार हुए.. ये जानकर कोई आश्चॆय नहीं हुआ कि १५वीं लोकसभा में ३०० सांसद ऐसे हैं जिनकी सम्पत्ति करोड़ों में है... पर एक झटका जरूर लगा कि जहां एक तरफ इस देश में करोड़ों लोगों को एक वक्त का खाना बमुश्किल नसीब होता है वहीं दूसरी ओर जनता के सेवक करोड़ों में खेल रहे हैं......चुनाव चाहे राज्य सभा के हों या लोकसभा के , सम्पत्ति के लेखे जोखे का खेल हम दशकों से देखते आ रहे हैं.. इनकी सम्पत्तियां चुनाव दर चुनाव बढ़ती जाती हैं और सारे बहिखातों को चुनाव के बाद ठन्डे बस्ते में डाल दिया जाता है.. क्यों उन बहिखातों को सार्वजनिक नहीं किया जाता? मेरे ख्याल से तो ये है कि चुनाव से पहले हर प्रत्याशी द्वारा प्रगति का ग्राफ तैयार किया जाना चाहिए जिसमें क्षेत्र के लिए मिले अनुदान के खर्च का तथ्यों सहित ब्योरा हो..तथ्यों के साक्ष्य के मद्देनजर वोटिंग होनी चाहिए.. वोट देना हमारा हक है पर क्या अंगुली पर स्याही मात्र लगाने से ये दायित्व पूरा हो जाता है?

Thursday, May 7, 2009

जय हो मंगलमय हो

कोई कहता है जय हो तो कोई कहता है भय हो॥ कोई कहता है आम आदमी के बढ़ते कदम तो कोई कहता है इन्डिया शाइनिंग..... शाइन तो है लेकिन देश की जनता (जिसे जनता कहा जा सकता है) की नहीं राजनेताओं की जो कि पाँच साल में अपना भरपूर विकास कर लेते हैं॥ वाकई में इस राजनीति की जय हो जहाँ के राजनेताओं को विकास का मतलब तक नहीं पता लेकिन विकास कराने का दम भरते हैं...
प्रियंका गांधी अमेठी में अपने दौरे के दौरान मंच और माइक छोड़कर जनता के बीच चली गईं.. और वहां जाकर उन्हें गांव वालों को उन्हीं के गांव में होने वाले विकास को समझाना पड़ रहा था.. ये थी एक और भूल जनता को मूर्ख समझने की... उस भीड़ में से एक वृद्ध महिला की आवाज आई कि हमारे गांव में बिजली तो अभी भी नहीं है तो 'इंदिरा गांधी की छवि रखने वाली' प्रियंका ने समझाया कि हमारा काम था खम्बे गड़वाना सो हमने कर लिया अब बिजली तो आप को राज्य सरकार नहीं दे रही॥ यानि इस बार राज्य में भी राहुल भईया के चुनाव चिन्ह को जिताओ तो खम्बे के साथ साथ बिजली भी मिलेगी..... मेरे एक वरिष्ट साथी ने बताया कि बिजली(बिजली से मतलब घर में जगमगाने वाली ट्यूबलाइट से है), पानी और सड़क शहरी मुद्दे हैं इसका गांव से कोई लेना देना नहीं है... मुझे इस बात पर अचम्भा हुआ क्योंकि मेरे मुताबिक इनकी सबसे ज्यादा जरूरत गांव वालों को ही थी.. लेकिन वे इस मामले में साफ थे उनका कहना था कि गांव वालों की पहली जरूरत एक अस्पताल, एक स्कूल और डीजल हो सकती है जबकि रफ्तार से मॉल तक कार दौड़ाने के लिए एक अच्छी सड़क, मॉल को जगमगाने के लिए बिजली की जरूरत शहरी जनता को ही है इसीलिए सरकारी खजाने का बड़ा भाग शहरों को ही ये सुविधा बार बार उपलब्ध कराने में जाता है... बार बार इसलिए क्योंकि यहां एक तथ्य समने रखना चाहती हूँ... मध्यप्रदेश के आर्थिक शहर कहे जाने वाले इन्दौर में पहले से ही डम्बर की पक्की सड़कें मौजूद थीं लेकिन शहर को अत्याधुनिक बनाने के लिए उन सड़कों को तोड़कर वहां सीमेंट और रबड़ की सड़कें बनाई गईं... नतीजा शहर का जल स्तर (वॉटर टेबल) धीरे धीरे कम होता गया और अब वहां भी पानी के लिए हाहाकार मच गया है... इस उदाहरण के बाद मेरी इस बात को भी बल मिलता है कि ये नेता साइंटिफिक विकास के बारे में जानते ही नहीं हैं॥ वे नहीं जानते की भारत के जलवायू के मुताबिक यहां कौन सी बात पहले और ज्यादा जरूरी है... सिर्फ पश्चिम का अन्धानुकरण... यहां एक बात और जोड़ना चाहूँगी यहां रेल्वे स्टेशन के पास अक्सर यूकेलिपटल के पेड़ लगे दिखाई देते हैं॥ ये पेड़ यूँ ही नहीं उगे हैं बल्कि सरकार द्वारा बकायदा जगह जगह लगवाए गए हैं.. इस पेड़ के तमाम फायदों के बावजूद सबसे बड़ा नुकसान ये है कि धरती से जल स्तर को कम करने में सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि इसकी जड़ें पानी को ज्यादा मात्रा में सोखती हैं... जब इस बात की जानकारी नहीं थी तब तो ठीक था लेकिन जानकारी मिलने के बाद भी ये पेड़ उतनी ही संख्या में दिखाई दे जाएंगे... जिस देश की ७० प्रतिशत जनता आज भी २०-३० रुपये प्रति दिन यानि ६०० रुपये माह कमाती हो और जिस देश के एमपी पर ५ साल के लिए एक करोड़ साठ लाख रुपये खर्च किए जाते हों उस देश का विकास हो रहा है ? और क्या उस देश का विकास हो सकता है? TOTAL expense for a MP [having no qualification] per year : Rs।32, 00,000/- [i।e। 2।66 lakh/month] TOTAL expense for 5 years : Rs। 1, 60, 00,000/- For 534 MPs, the expense for 5 years : Rs. 8,54,40,00,000/ - (Nearly 855 crores) AND THE PRIME MINISTER IS ASKING THE HIGHLY QUALIFIED, OUT PERFORMING CEOs TO CUT DOWN THEIR SALARIES.... . This is how all our tax money is been swallowed and price hike on our regular commodities. ........जिस देश में एमपी एमएलए ५ साल में याद आने वाले चुनावी दौरों में प्लेन और एसी कारों से दौरों में लाखों रुपये पानी की तरह बहा रहे हों क्या उस देश का विकास हो सकता है?
सोचने की जरूरत है अगर ५ साल काम किया होता तो उसे साबित करने की क्या जरूरत होती॥ "सत्य को प्रमाण की क्या आवश्यकता "

Saturday, May 2, 2009

पुरानी दुकान की नामी चाट

एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर मुस्कुराये,
कुछ नए से भावः उनके चेहरे पे आए
उन्होंने अपने पीए से पूछा-
क्यों भाई, ये डेमोक्रेसी क्या होती है
पीए कुछ झिझका, साकुचाया शर्माया
-बोलो बोलो डेमोक्रेसी क्या होती है
- सर जहां जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की ऐसी तेसी होती है वहीं डेमोक्रेसी होती है

अशोक चक्रधर की कविता से

Sunday, April 19, 2009

एक और आईआईटी या एक और मंदिर....

....ताज्जुब की बात है कि आज भी राजनीतिक पार्टियां मंदिर मस्जिद को अपना मुद्दा बनाकर १५वां लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं... किसी पार्टी के मेनिफेस्टो में मंदिर बनाने का पिछले १७ सालों का वादा है, तो किसी पार्टी में कंधमाल, बाटला हाउस, संसद और ८४ जैसे दंगो के गुनाहगारों को क्लीन चिट देना और न देना धर्म से जुड़ी राजनीति पर निर्भर करता है....आज भी मंच पर भाषण देने वाले नेता, अभिनेता अपने फूहड़ भाषणों से चर्चा में आने की कोशिश करते हैं ...
राजनीति में आने वाले युवा नेता वरुण गांधी को भी जनता में जगह बनाने के लिए जय श्री राम का सहारा लेना पड़ता है........सबसे अहम बात ये है कि किसी भी पार्टी का युवा नेता खुलकर देश की समस्याओं को जानने समझने की कोशिश नहीं कर रहा है॥कांग्रेस में तो राजनीति विरासत में मिली पूंजी है जिसके बलबूते पर पार्टी युवा नेताओं की सरकार होने का दावा करती है .....
देश में कितने लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और कितने बच्चे आज भी अपना नाम लिखना नहीं जानते एसी में बैठे ये नेता सोचना और समझना जरूरी भी नहीं समझते....समझ में नहीं आता कि ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज जैसी यूनिवर्सिटीज से पढ़कर आने वाले 'युवराज' भारत में आकर शिक्षा को अपना चुनावी मुद्दा बनाने की जगह जय श्री राम को अपनाते हैं..... विदेशों में पढ़ने तो राम मोहन रॉय, विवेकानंद , महात्मा गांधी और नेहरू जैसे लोग भी गए थे लेकिन इन्होंने अपनी शिक्षा को देश की अच्छाई के लिए इस्तेमाल किया.. ऐसे नेताओं का क्या करेंगे जो मोटी मोटी डिग्रीयां लेकर देश के विकास में मदद देने की बजाय देश को बर्बाद करने पर तुले हैं...
खुद उनके घर के लोग कई धर्मों को मानने वाले हैं लेकिन भोली जनता की भावनाओं को भुनाने में मजा आता है... जनता नासमझ है और जनता का नासमझ होना इनकी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए जरूरी है इसीलिए शायद ये विकास, शिक्षा, जागरुकता की जगह मंदिर, मस्जिद की बातें करते हैं .. ऐसे घिनौने वादे करते हैं लेकिन सिर्फ चुनावी सफर तक... उसके बाद कौन सी जनता कौन सा मंदिर....... कुछ और युवा नेता मेनेजमेंट गुरुओं से स्क्रिप्ट लिखाकर, स्पीच की पूरी तैयारी करके मैदान में उतरते हैं..... अगर कोई नेता वंशवाद की राजनीति से बाहर निकलकर वाकई में जमीनी स्तर पर काम करना चाहता है तो उसका स्वागत है........
लेकिन इन नेताओं के साथ साथ हमें भी समझना होगा कि हमें क्या चाहिए ? अपने आप से पूछें तो जवाब मिल जाएगा कि अपने बच्चों को हम क्या देना चाहते हैं एक अच्छा कॉलेज या एक अच्छा मंदिर ? शिक्षित बनने की संस्था या अंध आस्था का घर ?

Tuesday, February 10, 2009

संवेदनहीन होता मीडिया

वक्त से आगे बढ़ने के फेर में हम इतना आगे निकल जाते हैं कि ये सोचने का भी टाइम नहीं मिलता कि हम क्या कर रहे हैं, जो कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं ... हमारे पड़ोस में कोई मरता है तो मरे हम तो 'सेफ' हैं ना बस! इतना ही काफी है॥ लेकिन क्या किसी का काम ये भी हो सकता है कि वो किसी की मौत का इंतजार करे!..पर हमारा ये काम है.. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब से एम्स में भर्ती हुए हैं मीडिया चील से भी तेज नजर एम्स पर रखे हुए है.. आलम ये है कि हर छोटे मोटे चैनल्स की ओबी एम्स के बाहर इस तरह से खड़ी हैं कि मानो वाजपेयी जी की मौत का इंतजार कर रही हों ... ये इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि मौत की खबर पहले और सबसे पहले दिखाने की चाह में हम २४ घंटे ओबी और रिपोर्टर को लगाकर उनकी मौत का ही इंतजार कर रहे हैं.. इस बात के दो नजरिए हैं पहला ये कि खबर पहुँचाना मीडिया का काम है और दूसरा ये कि ऐसा करते हुए हमने अपनी संवेदनाएं खत्म कर ली हैं.. दूसरा नजरिया ज्यादा खतरनाक है क्योंकि वो एक चलन की ओर संकेत कर रहा है कि किसी की मौत एक खबर से ज्यादा कुछ भी नहीं है हमारे लिए..... इसके अलावा हद तो तब हो जाती है जब सारे मीडिया जगत में वाजपेयी का प्रोफाइल तैयार कर लिया जाता है और उनकी अच्छी बुरी यादों से जुड़े पैकेज तैयार कर लिए जाते हैं कि बस मरें और हम एक के बाद एक, खूबसूरत स्क्रीन दिखाने के लिए अपने पैकेज दागते जाएं... हमें देश की भावी राजनीति की चिन्ता तो नहीं है लेकिन फ्यूनरल का कोई शॉट न छूट जाए इसकी ज्यादा चिंता है.. ये हमारा काम है या हमारी मजबूरी!